कितनी बार ये बात कही गई कि किसान आंदोलन कुछ दिन बाद चर्चा से बाहर हो जाएगा और फिर चर्चा के अभाव में कहीं गुम हो जाएगा. लेकिन अगस्त 2020 से लेकर मार्च 2021 का पहला हफ्ता बीत जाने तक ऐसा हुआ नहीं. दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे धरने को ही 100 से ज़्यादा दिन बीत चुके हैं. कभी भारत में सोशल मीडिया ट्रेड चलता है तो कभी कोई विदेशी हस्ती किसान आंदोलन का समर्थन कर देती है. इधर कुछ दिनों से शांति थी, तो खबर आ गई कि ब्रिटेन की संसद ने भारत में प्रेस की आज़ादी और प्रदर्शनकारियों की सुरक्षा पर डेढ़ घंटा चर्चा कर डाली.

किसान आंदोलन को विदेश से समर्थन पहली बार नहीं मिल रहा है. कैनडा और ब्रिटेन के कई नेता ट्वीट से लेकर बयान जारी कर चुके हैं. हाल में रिएना और ग्रेटा के ट्वीट के बाद मचा घमासान आपको याद होगा ही. लेकिन ये पहली बार हुआ है कि किसी देश की संसद ने भारत में चल रहे किसान आंदोलन पर विस्तार से चर्चा की हो. इस चर्चा पर आएंगे, लेकिन पहले आपको कुछ बातों पर गौर करना होगा.

खालिस्तान की मांग के लिए समर्थन जुटाने की जुगत?
सिख समुदाय भारत से बाहर भी बड़ी संख्या में बसा हुआ है. खासकर कैनडा, ब्रिटेन, न्यूज़िलैंड, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों में. भारत में चल रहे किसान आंदोलन से उनकी भावनाएं भी जुड़ी हुई हैं और इसीलिए इन देशों में भी किसान आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन देखे गए. एक दूसरा पक्ष भी है. विदेशों में ऐसे कई संगठन हैं, जो अब भी खालिस्तान की मांग के लिए समर्थन जुटाने की जुगत में हैं. भारत सरकार ने इनपर प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन विदेश में ये काम करने को आज़ाद हैं. चूंकि भारत में दंगों के बाद दोषियों पर सख्त कार्रवाई करने की परंपरा नहीं है, इन संगठनों का काम आसान हो जाता है. ये ब्लू स्टार और सिख विरोधी दंगों को मानवाधिकार उल्लंघन के उदाहर बताकर विदेश में बसे सिखों और दूसरे समूहों का समर्थन जुटाते हैं. यही गोलबंदी धीरे धीरे बड़ी होकर राजनैतिक समर्थन तक पहुंचती है. इसीलिए पहले कैनडा और अब ब्रिटेन में ये देखा गया कि सिर्फ सिख नेताओं या सांसदों ने ही नहीं, कई गैर सिख नेताओं ने भी किसान आंदोलन को लेकर चिंता ज़ाहिर की. ब्रिटेन की संसद में हुई चर्चा को इन्हीं सारी बातों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

ब्रिटेन की संसद में 8 मार्च से पहले भी किसान आंदोलन का मुद्दा उठ चुका है. दिसंबर में ब्रिटेन की लेबर पार्टी के सांसद तनमनजीत सिंह धेसी ब्रिटिश संसद में प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन से सवाल किया कि भारत में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर वॉटर कैनन, आंसू गैस और पुलिस बल का इस्तेमाल हो रहा है.

क्या जॉनसन भारतीय प्रधानमंत्री से इस बारे में बात करेंगे?
तब बोरिस जॉनसन शायद तनमनजीत की बात को अच्छे से समझ नहीं पाए. उन्होंने कह दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच जो हो रहा है, उसे लेकर हम बहुत चिंतिंत हैं, लेकिन ये मसला इन दो देशों की सरकारों को ही सुलझाना होगा.

धेसी की शक्ल इसके बाद देखने वाली थी. उन्होंने ट्वीट कर दिया कि ये अच्छा होता अगर हमारे प्रधानमंत्री को ये मालूम होता कि बात हो किस बारे में रही है. लेकिन धेसी सिर्फ ट्वीट पर ही नहीं रुके. वो किसान आंदोलन के समर्थन में लगातार बोलते रहे. दिसंबर में ही उन्होंने शांतिपूर्ण आंदोलन के समर्थन में एक लेटर लिखा, जिसपर 35 ब्रिटिश सांसदों के दस्तखत थे.

ब्रिटिश सरकार इस मुद्दे पर सीधी चर्चा या प्रतिक्रिया का हिस्सा बनने से लगातार बचती आई है. लेकिन ब्रिटेन में किसान आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले नेताओं और सांसदों ने दबाव बनाए रखा. लिबरल डेमोक्रैट पार्टी में भारतीय मूल के एक नेता हैं गुर्च सिंह. ये इंग्लैड के मेडनहेड शहर से पार्षद हैं. इन्होंने 17 दिसंबर 2020 को एक ऑनलाइन पिटीशन शुरू की. इस पिटीशन में ब्रिटेन की सरकार से मांग की गई कि वो एक सार्वजनिक बयान जारी करके भारत सरकार से प्रदर्शनकारियों की सुरक्षा और प्रेस की आज़ादी पर बात करे. गुर्च सिंह ने कहा कि उन्हें अपनी पिटीशन पर लाख लोगों का समर्थन मिल गया तो वो ब्रिटिश पार्लियामेंट की पिटीशन कमेटी से बात करेंगे. ब्रिटेन की संसद में 11 सांसदों वाली एक पिटीशन कमेटी होती है. ये ऑनलाइन या ऑफलाइन पिटीशन पर विचार करती है. ये कमेटी किसी याचिका को योग्य पाने पर संबंधित संसदीय कमेटी के पास भेजती है. कभी कभी सरकार से भी कार्रवाई के लिए कहती है. लेकिन इसकी एक शक्ति बहुत महत्वपूर्ण है. ये किसी पिटीशन को चर्चा के लिए हाउस ऑफ कॉमन्स माने ब्रिटेन की लोकसभा में भेज सकती है.

पिटीशन में क्या था?
गुर्च सिंह की ऑनलाइन पिटीशन को सवा लाख से ज़्यादा ब्रिटिश नागरिकों का समर्थन मिला. 36 सांसदों ने इस पिटीशन को अपना समर्थन दिया. गुर्च सिंह या फिर उनकी पार्टी लिबरल डेमोक्रैट का ब्रिटेन में बहुत बड़ा नाम है, ऐसा नहीं कहा जा सकता. फिर भारत में कृषि सुधार पर ब्रिटिश संसद चर्चा करे, ये बहुत मुश्किल था. इसीलिए गुर्च अपनी पिटीशन में शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अधिकार और प्रेस की आज़ादी पर ज़ोर देते हैं. ये वो मूल्य हैं, जिन्हें पश्चिम के लोकतंत्रों में बहुत महत्व दिया जाता है. फिर गुर्च की पिटीशन पर हाउस ऑफ कॉमन्स में चर्चा की मांग दो भारतीय मूल के सांसदों ने पुरज़ोर तरीके से की. एक नाम का अंदाज़ा आपने लगा ही लिया होगा – जालंधर से ताल्लुक रखने वाले तनमनजीत सिंह धेसी और उनकी ही लेबर पार्टी से आने वालीं वेलरी वाज़. वेलरी के परिवार की जड़ें गोआ में हैं.

गुर्च की पिटीशन पर लाख से ऊपर दस्तखत का मतलब था कि बहस वेस्टमिंस्टर हॉल में होती और जवाब देने के लिए जॉनसन सरकार को अपनी तरफ से कम से कम एक मंत्री को भेजना पड़ता. लेकिन ब्रिटेन में कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के चलते 13 जनवरी 2021 से वेस्टमिंस्टर हॉल में चर्चा रोकी गई. लेकिन मार्च आते आते 100 ब्रिटिश सांसद किसान आंदोलन के मुद्दे पर दखल देने के लिए बोरिस जॉनसन से अपील कर चुके थे. अब चर्चा को ज़्यादा दिन रोका नहीं जा सकता था. इसके बाद 8 मार्च का दिन चर्चा के लिए तय हो गया. इस दिन चर्चा के लिए 90 मिनिट का वक्त रखा गया.

चर्चा के दौरान सांसदों ने किसान आंदोलन के मुख्य पॉइंट्स

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स्कॉटिश नेशनल पार्टी के मार्टिन डे ने कहा कि कृषि सुधार भारत सरकार का फैसला है. इसलिए अभी उनपर चर्चा नहीं हो सकती. हम प्रदर्शकारियों की सुरक्षा पर बात करना चाहते हैं. किसानों और पुलिस के बीच टकराव और इंटरनेट कनेक्टिविटी की समस्या चिंता का विषय है.

2

लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन ने कहा कि आंदोलन के लिए इतने सारे लोग क्यों पहुंच रहे हैं, इसपर विचार होना चाहिए. पत्रकारों की गिरफ्तारी गंभीर चिंता का कारण है.

3

ऐसा नहीं था कि बहस में हर किसी ने किसान आंदोलन का ही पक्ष लिया. कंज़र्वेटिव पार्टी की सांसद थेरेसा विलिअर्स ने कहा कि जब ब्रिटेन में प्रदर्शन होते हैं, तब ब्रिटिश पुलिस के खिलाफ भी शिकायतें आती हैं. इसका मतलब ये नहीं हो जाता कि ब्रिटेन लोकतंत्र में नहीं मानता.

किसान आंदोलन भारत का आंतरिक मसला है?
चूंकि भारत में इस बात पर बहुत ज़ोर है कि किसान आंदोलन भारत का आंतरिक मसला है, तनमनजीत सिंह धेसी ने अपनी बात ही यहां से शुरू की. चर्चा के बाद ब्रिटेन की सरकार ने कहा सांसदों ने जिन मुद्दों को उठाया है, उनपर तब बात होगी जब दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की आमने-सामने मुलाकात होगी.

हमने आपको ये बताया कि चर्चा तक बात कैसे पहुंची और फिर चर्चा में क्या हुआ. अब एक दूसरे पक्ष का रुख करते हैं. किसान आंदोलन के पक्ष में विदेशों में प्रदर्शन हुए हैं तो कुच्छेक जगह ये भी देखा गया कि कृषि कानूनों के समर्थन में प्रदर्शन हुए. आकार में ये प्रदर्शन बहुत छोटे थे, लेकिन कृषि कानूनों के लिए विदेशों में समर्थन जुटाने की कोशिश हो रही है, ये हम सभी जानते हैं.

लंदन स्थित भारतीय उच्चायोग ये क्या कहा?
ज़ाहिर तौर पर, ये चर्चा भारत सरकार को पसंद नहीं आई. लंदन स्थित भारतीय उच्चायोग ने एक बयान जारी किया. इसमें कहा गया,

”हमें खेद है कि एक संतुलित बहस की जगह झूठे, तर्कहीन दावे किए गए. इसके ज़रिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं पर आक्षेप लगाए गए. विदेशी मीडिया संस्थानों के साथ-साथ ब्रिटिश मीडिया भी भारत में है और उसने प्रदर्शनों को कवर किया है. इसीलिए भारत में प्रेस की स्वतंत्रता का सवाल खड़ा नहीं होता है.”

इसे लेकर भारत ने दिल्ली में ब्रिटेन के उच्चायुक्त को तलब करके नाखुशी जताई. भारतीय विदेश सचिव ने कहा कि ये चर्चा गैरजरूरी और भारत के राजनीतिक मामलों में दखलंदाजी है.

7 महीने से चल रहे किसान आंदोलन ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा पा ली है. एक विदेशी संसद में तो उसपर अलग से बहस भी हो गई है. लेकिन इसका सीधा असर किसानों और सरकारों के बीच बातचीत पर पड़ जाएगा, ये कहने के कारण अभी नहीं मिले हैं. लेकिन सबकुछ दिल्ली की सीमाओं पर ही नहीं हो रहा है. भारत बड़ी मेहनत से दुनिया के बीच साख बनाने में लगा हुआ है. ऐसे में क्या ब्रिटिश संसद में हुई चर्चा इस कवायद पर असर डाल सकती है?

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