अगर आपको फ़िल्मी दुनिया से कुछ दिलचस्पी है तो 1988 की मशहूर फिल्म “एक ही मक़सद” देखी होगी, इस में एक गाना है, जिसको पंकज उदास ने गाया है۔

दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है

हम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता है

कितने दिनों के प्यासे होंगे यारो सोचो तो

शबनम का क़तरा भी जिनको दरिया लगता है

इस गाने के लेखक प्रतापगढ़ के मवई कलां कुण्डा के मशहूर शायर क़ैसर जाफरी हैं(1926-2005), आपका असली नाम ज़ुबैर अहमद जाफरी है, और क़ैसर जाफरी तख़ल्लुस है, पिता का नाम सगीर अहमद है।

जन्म आपका नज़र गंज तहसील पायल जनपद इलाहाबाद में हुआ, लेकिन बाद में मवई कलां कुण्डा आगए, और इसी को अपना निवास स्थान बनाया, आख़िर में मुम्ब्रा मुम्बई रहने लगे थे, वहां के कार्पोरेशन ने उनके सम्मान में एक सड़क का नाम भी क़ैसर जाफरी रखा।

उर्दू अदब और शायरी से आपका सम्बंध बहुत गहरा था, शायरी से आपने विश्व भर में शोहरत पाई, पाकिस्तानी चैनलों पर भी आपकी गज़लै ख़ूब पढ़ी जाती हैं।

आपकी बहुत सारी किताबें हैं।

नअत की दो किताबें हैं। (1) नुबूव्वत के चराग़ (2) चराग़े ह़िरा।

ग़ज़ल की किताबें…

रंग ए ह़िना ● संगे आशना ● दश्त बे तमन्ना ● अगर दरिया मिला होता ●

दीवानागीरी में आपके मजमूऐ कुछ इस तरह हैं।

पत्थर हवा में फेंके ● दीवारों से मिल कर रोना ● बस्ती कितनी दूर बसा ली ● आवारा हवा का झोंका ● मोलसिरी के फूल।

आपके शेर के कुछ नमूनें।

आवारा हवा का झोका हूँ

आ निकला हूँ पल दो पल के लिए

तुम आज तो पत्थर बरसा लो

कल रोओ गे मुझ पागल के लिए

इसे आपने अलताफ राजा की आवाज़ में सुना होगा

_______________________________

या मुन्नी बेगम की आवाज़ में सुना होगा

_______________________________

तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे

मैं एक शब चुरा लुं अगर बुरा न लगे

इसके अलावा आपकी गज़लों को और बहुत सारे सिंगरों ने गाया है और फिल्मों में हिट हुई हैं।

तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे

तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माने लगें

________________________________

तुम आंख मूंद के पी जाओ ज़िन्दगी क़ैसर

कि एक झूंट में मुमकिन है बद मज़ा न लगे

________________________________

घर लौट के रोएं गे मां बाप अकेले में

मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में।

(लेखक: आदम अली नदवी, यह लेख उर्दू में था सलमान नदवी ने इसे हिन्दी में किया!)

Facebook Comments